बात करती है हवा : श्रीनिवास श्रीकांत

बात करती है हवा
खला में गूँजता उसका स्वर
जिसे सुन रहा
घाटी का बुज़ुर्ग पेड़
पहाड़ी नदी
कलई की रेखा सी खिंची
धूप से करती लपट-झपट
पर मौसम है चुप
उसका ध्यान है
पश्चिम के दरवाज़े पर
जहाँ अब लौटेगा सूरज


झूमते जा रहे
जामुनों के पेड़
तुम्हारी बात की तरह मीठे
और कसैले भी
स्वाद उनका घुल रहा है जहन में
रक्त में दौड़ता
फिर जाने इतने साल बाद
घुल जाता कहाँ


सोख लेती हैं इन्द्रिया
सभी सुख


हवा बात करती है
अपने आप से
हँस रहे है पर
नहीं सुनायी देता
अब उसका अट्टहास


आखिर हवा है वह
करवट लेती, अधलेटी
उस दूर की ढलान पर
जहां ख़ो गई थी
तुम्हारी दुधली गाय की
नवजात बछिया
देखो कितनी अटखेलियां कर रही है वह
जब गुज़रती है सरसरा कर
पकी घास के तिनकों को छेड़ती


पर वह तो बला भी है
तुम्हारी तरह बदले उसने कितने रूप
हर मौसम में अपनी है अदा उसकी
कभी बच्ची
कभी अल्हड़ जवान
कुचल देती पकीं फसलें
खुशगवार पेड़ों के इरादे
देखता रहता
घाटी का बुजुर्ग पेड़
नदी भी हो जाती वेगवती
पछाड़ों से डर जाता गाँव


हवा बात करती है
तो टूट जाता है सन्नाटा
जैसे टूट जाये काँच
और सुनायी भी न दे


खोया था मैं अतीत में
कहीं दूर
एकाकीपन में टोहता
अन्दर की भूल भुलैय्या
न आ पाता पेचदार रास्तों से बाहर


परी हो तुम
नहीं आती अब
दीप लिये दिखाने राह
इसीलिए बरसों से बन्द हूँ
अपने अन्दर
बाहर नापता
कोहरिल आसमान की दूरियाँ
हवा तब चली जाती अपने घर


पर यह क्षण तो है
तुम्हारा एक अन्तराल
जी रहा जिसे मैं
मौसम के साथ-साथ
अपने आप में उदास
अकेला


नदी भी तुम्ही हो
समय की घाटी में बहती
सूरज के हर अक्स से
करती अटखेलियाँ
और मैं हो रहा हूं भारहीन
अन्तराल में ऊपर को उठता
खुलती है ज़िन्दन्दगी
एक दूसरे अन्तराल में
जो है गोधूलि का गलियारा।

1 टिप्पणी:

awtar engill ने कहा…

hava ki baat, itni saadgi aur itni gehraee se srinivas srikant ke siva kaun kr skta hai bhalla? Natmstk bhi hoon aur kavita ke kautak se chmtkrit bhi.