घर-दो : श्रीनिवास श्रीकांत

उम्र भर जिन घरों में रहा हो आदमी
दिक्काल में वे बन जाते हैं
उसके जहन के जाविये
रहते एक के अन्दर एक
महफूज, दबे और तहाए

स्मृति इन्हें खोल देती है यदा कदा

उनके योज्य वास्तु आयामों समेत

यंत्रस्थ कैमेरों की तरह खुलते हैं वे

अपनी सघन तसवीरों के साथ
बिम्बित होते हैं चलचित्र पट पर
एक- दूसरे में छायांकित
अपनी पहचान भरी संध्याओं
धुन्दली सुबहों
और रात के प्रचुर प्रसंगों के साथ

पारिवारिक स्मृतियाँ

होती रहती हैं
कभी दूर से दूरस्थ
कभी समीप से समीपतर
वे देती हैं
घरों के स्थापत्य को गरिमा
उनमें दबा रहता है
जुड़ाव का भाव और
संसार की असारता का बोध भी

घूमने लगता है आदमी

अपनी ही धुरी पर/उध्र्वस्थ
अस्तित्व तब बन जाता है चक्रदोल
सम्वाद गूँजते हैं
समय के अन्तरालों में

उम्रभर जिन घरों में रहा हो आदमी

वे अक्षरमाला की तरह
पहले बनते शब्द/फिर भाषा
और बाद में कई जिल्दों वाली
एक वृत्त-कथा

काल, स्मृति और वृत्तान्त का

समेकित संचय हैं वे
एक अति गोपनीय सन्दर्भ

घर हैं मरु के अनन्त मृगजल

एक- दूसरे में उतारते निरन्तर
अपनी केंचुल।

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