वह मुझे था आता नज़र : श्रीनिवास श्रीकांत

हिमालय से हिन्द महासागर तक
ज़मीन से आसमान तक
वह मुझे आता था नज़र

वह था सूरज की खुली रौशनी में

चरागाह से नजर आता दृश्य
मौसम में नहाया
हरियाली ओर गोधूलि में सन्तुष्ट
रहस्यमय
ऐसा था मेरा देश

चरखों की घूं-घूं

मिस्सी रोटियों की थपथप के साथ
ममतामयी की आग में पकता
मुंह अंधेरे, छाछ की रिड़कनों में बजता
कर्णसुख

जब पास बहते नाले के प्रपात पर

छपछपाता जल
ओर दूर वनखण्डी में
बानों के झुरमुट से
चिहुक चिहुंक करता
सुबह का पक्षी
तब मैं नहीं जानता था
कि क्या होगा मेरा देश
तब मैं नहीं जानता था
कि शेष के फन पर धरी पृथ्वी
और आदमी का
वह है मर्म
जीवित थे तब
देवालय के देव
विष्णु
शिव
चामुण्डा
सभी
और वह अघोरी आसमान भी
जो जागता था
भैरों के मसान में अलख

अब नहीं रहीं

वे कोठरियां जिनमें
खनखनाते थे
पूजा के बासन
और न वे रसोइयां
जिनमें टनकती थीं
बाबा की खरीदी पतीलियों में
दादी की कड़छियां
आँगन में बिखरे पत्तों को बुहारती
जमना बुआ
ओर उसका अनेक चेहरों वाला
रंग-बिरंगा सपना
दिल तक डूबी आंखों में समाया

जाने कैसे भाप हो गये

वो सुन्दर, वो सहज दिन
थमा रह गया
भूखण्ड के हाथ में
मेरे गाँव का ठूंठ गुलदस्ता
यह देश सचमुच
कुछ और था
पर अब हो गया है कुछ और

पुराने तवे टंगे हैं पशु शालाओं में

हल की फाल अब नहीं खींचती
परती जमीन में
तरतीबवार लकीरें

कुछ साल तक दिखायी देते रहे

पास की थानियों में
यहां-वहां
जांबाज बैलों के पिंजर
गायों के सींग
ओर सुनायी देती रही
श्रुतिभ्रम में
भेड़ों की मिमियाहट
बैलों की पीठ पर पड़ते
कठोर चाबुक
बिटरे धौलिये
और ढीठ कालू पर
लगती तोहमतें
प्यार
मानमनुहार

वह था मेरा

सूरज को समझना
तारों को पहचानता
गावों वाला देश
जिसमें चैपाल और चैराहे
रखते थे रातों को याद
नाचते तो झूमने लगता मौसम
कदम उठते कदम गिरते
जिन्दगियों में भी कुछ होता
दमख़म

अब पानी भी छलछला आता है

उपेक्षित पोखरों में
तो नहीं होती वह हलचल
हवा भी नहीं रही उस तरह की चंचल
कि झुका पाये जल की छलछल के साथ
पास की टहनियां
जिन पर कभी लटके रहते हम
देखते उल्टा आसमान
उल्टी घाटियां
उल्टे पेड़

डोडनी
के पास भी
नहीं रही अब वह
छायादार
मधुर जल भरी बाँवड़ी
जिसमें जब मेरी गागर भरती
तो वह गुड़गुड़ करती
पृष्ठभूमि में बजता रहता
पार की चरागाह में
नृत्यरत मयूरों का गान

भैरों की वह बाँवड़ी

हो गयी ज़मींदोज़
सूख गया मधुर जल भी
वह दब गयी
शहर जाती सड़क के नीचे

आ जाओ !

एक बार फिर आ जाओ!
हो, ललछौंहें
धूपीले
सुनहले दिनों !
मैं फिर तुम्हें निहारता
इस बैलोस मौसम में
ढलान की
हाथी चट्टान की ओट से
गिनता हुआ
कटी हुई चीड़ के
निर्जीव ठूंठ

कितने भोले लगते थे

कभी इनकी टहनियों पर
जापानी बच्चों से सिर हिलाते
तीखे हरे रेशों वाले
बालों के गुच्छे
अपनी ही मस्ती में झूमते
उनके शंकुलफल
अब थक कर लेटता भी हूँ
धार की उन ढलानों पर
तो नहीं झुरझुराती यह देह
और न उस तरह छूती है हवा

खलिहान की

ओ, भूसा बिखराती
निष्ठुर हवा
तू जा अब
न आ मेरे पास
मैं हूँ अन्दर तक उदास
कुँए में कैद
एक लाचार, सिरफिरा
उछलता मेंढ़क।
  * डोडनी=रीठे का पेड़

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