हय गाथा : श्रीनिवास श्रीकांत

सहस्राब्दियों तक वे ढोते रहे
मनुष्यों की बेगार
लड़ते रहे साम्राज्यों के लिये महायुद्घ
रथ में जुते
भिड़े घुड़सवारों के साथ

बेशक उन पुरा वीरों ने

किया था उनसे प्यार
नाम भी दिये थे उन्हें
आदमियों की तरह
सुन्दर
और अर्थमय

बेशक पार की थीं उन्होंने

इतिहासकारों
लम्बे यात्रियों
और यायावर कबीलों के साथ
पर्वतीय दूरियाँ

मगर सम्मोहन टूटने के बाद

आ गये वे एकाएक सड़कों पर
कस्बों में तांगों से जुते
सहते रहे एक नये इतिहास में
पीठ छीलती कोड़ों की मार
और सब हो गये बन्धक
सदा-सदा के लिये
अस्तबल की दीवारों से

अपनी थूथनियाँ रगड़ते

नाँद में
चना-चारा जुगालते
उनका भर आता है मन
अब प्राय:
वे रहते हैं उदास

कभी-कभी वे सोचते हैं

अपने बारे में
और उन्हें आता है गुस्सा भी

वे हिनहिनाते हैं

पटकते हैं अपने नाल जड़े जख़्मी पाँव

तब उन्हें यह लगता है

कि वे कर देंगे
इन्सानों की
पूरी दुनिया को ही ध्वस्त

कितना कुछ हुआ

इन बेजुबान जीवों के साथ
वे फिर भी हैं स्वामीभक्त
कितने सीधे और सुशील!

कोई टिप्पणी नहीं: