पयगम्बर का उदय : श्रीनिवास श्रीकांत

मक्का को प्रसवपुण्य की तरह
जिया था उसने
पर अपनी ही माँ

उस जमीन के लोग

नहीं जान पाये थे उसे
उसने बसाया था मदीना
अरब ओर अरबियत को
दी उसने ऐसी तहज़ीब
जिसमें
नहीं था उसका कोई सानी
पूरे रेगिस्तान को
सहेज लिया था उसने
अपनी हथेलियों में
वही थी उसकी जमीन
वही था आसमान

वह थी एक सर्वनिष्ठ

महान धर्म यात्रा
उर्स था वह
परमानन्द भरा था उसमें
और तब उसने चाहा था
कि पूरी पृथ्वी हो आदमी का घर

वह थी एक अनन्त यात्रा

मक्का से मदीना की ओर
अपने कुछ वफादार साथियों के साथ
जिनके लिये बनाया था उसने
उस भूमध्य में
                एक महा मार्ग

रेत के बहते हुए दरिया पर

आस्था का फौलादी पुल

यथरिब ने कहाः

मैं हूँ आपका मेज़बान
ओर उसने यह कहकर बिछा दिये
अपने पलक पांवड़े
अपने दस्तरखान
और इस तरह हुआ था संभव
उस दैवी वरद हस्त के नीचे
महाजरों अन्सारों
अनेकानेक मरूजनों का
एकजुट होना
ऋग्वेद की तरह
उसने भी चाहा था
सब एक हो कर जियें
पूरी रूहदारी के साथ
न हों बेशक मोहम्मदीय
मगर हों सच्चे मुस्लमान
वे हों चाहे अरबी
फ़ारसीया इब्रानी
सब की आत्माओं में हो
एक सा स्पन्दन
जहनों में एक सी ज़हनियत
दिलों में एक सा दर्द
सुब्हें हों
        तो हों अज़ानों से गुंजायमान
        और शामें साझेपन के एहसास से मालामाल
हाथ उठें तो उठें आसमान की ओर
उससे रहमत की याचना में
सर झुकें तो झुकें इबादत के लिए
उसकी दहलीज़ पर
बस्तियां हों
        तो खुदाई नेमतों से वरदायी
दिन भर की मशक्कत के बाद
जब कारवां लौट आयें
        अपने अपने घरों को
खेमों के शहर जगमगाएं
        घर की महफिलें हों
रौनक अफरोज़
बीवियां बनाएं चूल्हे
       बच्चों की नींद में उरत आयें
नेक परियों
       दैवी फरिश्तों की सवारियां
       दोस्त-बिरादर पूछें तो पूछें
एक दूसरे की सुख शान्तियां
घरदारिनें हों
        अपने मर्दों की
मिजा़ज पुर्सियों में लीन
सिर्फ हरम ही नहीं
दार भी हों वहां
छावनियों के बीच
संघों के सभागार
जहां होते हों प्रवाचन
खुलते हों आसमान के रहस्य
           अपने इस तसव्वुर को
           उतारा था उसने
           भूमध्य की रेत पर
           महागर्त की ओर बढ़ते
           जाहिल क़दमों को
           लौटाया था उसने
           अपनी जादुई आवाज़
           पैगम्बरी परवाज़ से
           एकत्र जनपदों को
           दिये जाते थे आदेश
           नये विधि-विधान के
           ज़मीन-ओ-आसमान के

पर कहां गये वे सब के सब

अक़ीकी
खुद दिवंगत नबी
खलीफा-मोमिनों के
सच्चे अनमोल बोल
जो थे
कुरआन की रौशनी से रौशन
जिन्होंने किये थे सब के शीशे साफ
भू-प्रान्तर को बनाया था
सुसंकृत और सभ्य
छोटों-बड़ों
सब को किया था एकजुट
बना दिया था रेत को चमन
चहकने लगी थीं
हरसू बुलबुलें
देव बानियां सुनातीं
जाने कहां से आयी थीं वे उड़कर
पात-पात टहनी-टहनी तब
हो गयी थी
खुदाई नेमतों से पामाल।

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