त्रयेक / श्रीनिवास श्रीकांत

त्रयेक
लोहार चला रहा
लगातार अपनी धोंकनी
कुम्भकार दे रहा
मिट्टी को आकर
बुनकर बुन रहा
ब्रह्मासूत
जाने त्रयेक परमेश्वरों ने
क्यों रची होगी
यह रूखी, अड़िय़ल
और नापायेदार
अदभुत माया

इसे जानते हैं तो जानते फकत

साधू आखरों के सबदकार

कि पेड़ लगातार झड़ रहे हैं

फिर भी उनसे आ रही है
खंजड़ी और मंजीरों की धुन
बेमौसम क्यों अँकुराते हैं
जंगली अंजीरों केपेड़
बना रही हैं क्यों शहद और मोम
गुनगुन भजन गातीं मधुमक्खियाँ
बज रहा सबके अन्दर क्यों
एक नाद
फिर भी आदमी है
लोहार का
बजता हुआ धोकी यंत्र
कुम्हार की मृद् घड़त
और जुलाहे की चादर
वह है अनादि अनन्त का
एक नायाब तोहफा
जिसे चला रहे
लोहार
कुम्हार
और बुनकर।

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