पत्थर / श्रीनिवास श्रीकांत

गुज़र गए अट्ठावन साल
एक-एक कर
आतताइयों की तरह

कितना सम्मोहन है जीवन में

कि घरौंदे टूटने के बाद भी
एक सपना कौंध रहा कहीं दूर

दे रही जीने की ललक

पिण्डलियों को ताकत
आंखों को आश्वासन
मन को सान्त्वना

आयु है पुराने दराजों वाली अलमारी

हर दराज में ढेरों कतरने
इबारतें जिनको
अब कोई नहीं करेगा 'डी-कोड़'

देखता हूँ पीछे की ओर फैला

रेतीली नदी का विस्तार
दूर-दूर, और और दूर
घरौंदों का एहसास
खेले जो बचपन में हमने
उसके बाद कस्बे के मोहल्ले
घुमावदार सीढ़ियां
और एक-दूसरे को काटतीं
अपनेपन की लकीरें
और फिर उससे भी बड़ा नगर
उसके साथ बढ़ती हुई उम्र
सब लगता है कितना नाटकीय
कितना रहस्यमय
कितना छल भरा
जो थे वो कहां रहे अब
जो हैं--अपनी-अपनी विस्मृति में लीन
बीच में हैं, धुन्ध भरे अन्तराल

समय आया चंगेज़ की तरह

जलाता बस्तियां
फैलाता भय-भ्रम
हिलाता अस्तित्व की चूलें
जड़ समेत हिल गये थे दरख़्त

गुजर गये अट्ठावन साल

एक-एक कर दुश्मनों की तरह
जो लेते रहे बदला
नादान/भोले दोस्तों की शह पर
देते रहे मात
रूहपोश वक्त भी था उनके साथ
चुपके से लगाता रहा घात
गलियारों-गलियारों टोहता रहा मुझे
जब रोमिल आकाश के अहातों में
खिल रहे थे गाढ़े खुशबूदार
दुख के फूल

तभी एक दिन हाथ दिया था आसमान ने

घुमावदार भूलभुलैयों से ले गया वह
अन्दर के एकाकीपन की ओर
और तब से वहीं हूँ

कितना बोझिल था अतीत

कि जिससे वर्तमान भी हो रहा था भारी
जोड़-घटाव में उलझा था नाहक मन
करता हिसाब-किताब
नेकी और बदी का
किसने क्या लिया-दिया
प्यार, अपमान, उपेक्षा, मानहानि

पर

पत्थर के नुकीले कोण बग
हो गये हैं अन्तर्मुखी
पूरा अस्तित्व नदी के प्रहारों से गोल

लिये पांवों में आग हृदय में उष्मा

और जहन में बेख़बरी
पार करता हुआ यह अट्ठावनवां दरवाजा
बढ़ता हूं बिना कोई शिकायत
होनेपन के पूरे एहसास के साथ
अतीत के समग्र को
करता आत्मसात
सरक आ रही छदम्वेशी मृत्यु
पर मैं बढ़ रहा
पादान-दर-पादान
लगातार।

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