जाड़े की सुबह : श्रीनिवास श्रीकांत

जाड़े की सुबह और ठिठुरता मोहल्ला
फूटे टीन,कचरा ढेरियों को
चोर हाथों टटोलती है
ठण्डी धूप
चौखटों पर हैं तैनात
सतर्क अंधेरे
ऊटपटाँग सपनों के साथ लेते अंगड़ाईयाँ
उभरती है नल की टप-टप
घड़ी की टिक-टिक के साथ
नज़दीक
नज़दीक
और और नज़दीक आती हुई
जागता है आदमी
दुधमुहें दिन की बासी भाप के भाप के साथ


मोहल्ले में न कोई दरख़्त है
न मौसम का अहसास
न हवा की आहट
न गये कल की याद
टेढ़ी-मेढ़ी सीढ़ियों से उतरते हैं लोग
खिड़कियों से झाँकती हैं आँखें बेपरवाज़
शून्य को तराशाती आँखें
हिलता हइ जैसे गले फल में
बिना रीढ़ का कीड़ा
छज्जों पर धोबी टाँगते हैं
कतार बद्ध कपड़े
सफेद,पीले,चैकदार
रिटायर्ड अफ़सरों के घिसे सूट
बूढ़ी नायिकाओं की ढीली चोलियाँ
वक़्त नहीं गुज़रता
इन अहातों से
गुज़रती है एक काली नदी
नालियों से गटर तक जिसका
बहता रहता मवाद


मच्छर
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