दोस्ती बनाम दुश्मन: श्रीनिवास श्रीकांत

दोस्त वह भ्रांति
जो होती है पैदा
शहर की बेबुनियाद सम्वेदनाओं में
भौगोलिक विवशताओं से परिचालित
देखो मुड्कर
पीछे


कैसे बदल जाता है सब कुछ
एक कोरे
सन्दर्भहीन अपरिचय में


दुःश्मन
ग़लत हो या सही
मिल जाता है कहीं न कहीं
अपनी ही कमज़ोरियों के
आसपास


वह न मिलाता है हाथ
न बुलाता है अपने आस-पास
मारता है सीटियां


गली
मुहल्ले और
लोग बना लेते हैं
घर बैठे मनोरंजन का साधन मुझे
कथायें दोहराते
हंसते हो जाते हैं लोट-पोट
तेज़ाब-जलन से पीड़ित
उनकी आंतों को


दे जाती है राहत
मेरी ग़लतफ़हमी, मेरा बुद्धुपन,मेरी सदाशयाताएं


मरे हुए दोस्तों
और ज़िन्दादिल दुःश्मनों की
अम्लता पी पीकर
काले पड़ गये दिन
गूँगी हो गयीं रातें


दीवारों के कान
बुलाते कनख़ज़ूरों को
जिनमें से एक
बैठ जाता इच्छा केंद्र पर
चलाता उल्टी सीधी कैंचियां
और मैं दर्दमनीय पीड़ा की झोंक में
खोल देता हूँ अपनी चोर खिड़की
जिससे वह दुनिया नज़र आये
जिसे कभी कोई नहीं देखता

कोई टिप्पणी नहीं: